Tuesday 15 August 2017

Jain Trustee : जैन महाजन परंपरा के ट्रस्टी कैसे हो! कहीं आप साहब ट्रस्टी तो नहीं?


प्राचीन जैन महाजन परंपरा के ट्रस्टी                       वर्तमान में दिखने वाले ट्रस्टी  

ट्रस्टी विचारणा


कुछ समय पूर्व हुए संमेलन के पहले एक आपसी मिलन में अत्यंत प्रसिद्द आचार्य भगवंतने
एक बात रखी थी : श्री संघ के ट्रस्टी बनने हेतु एक आचार मर्यादा एवं ट्रस्टी बननेका 
क्वोलीफिकेशन बनना चाहिये, सिर्फ पैसो के जोर पर बनते गैर-जिम्मेदार-व्यसनी ट्रस्टीओ 
श्री संघ की गरिमा घटाते हे एवं उन्होंने कहा : 
"कम से कम मामूली से मामूली मर्यादा ऐसी रहनी चाहिए की ट्रस्टीपद निभाने वाले व्यक्ति
सातव्यसन के सेवन से दूर हो! "

जमींकंद-रात्रिभोज त्याग की बाते तो आज के युग में जैसे असंभवीत सी प्रतीत हो रही हे| 
जिनशासन के भावी की चिंता हो ऐसी पल आ पहुंची हे| बदकिस्मती से संमेलन में इस 
मुद्दे को चाहिए उतना महत्व नही दिया गया..रह गया....

शास्त्र कहते हे, प्रभु की आज्ञा के प्रमाण से : निस्वार्थ भाव से संघ की सेवा करने वाले 
प्रशासक को तीर्थंकरनाम की प्राप्ति होती हे! 
पर यह बात उसी ट्रस्टी को समज में आएगी जो ट्रस्टी व्याख्यान में आता हो| 
तिन प्रकार के ट्रस्टी देखने को मिलते हे|

१, संघसेवक, 
सही अर्थ में श्री संघ के सेवक बनकर रहे,समय-शक्ति,संपति सभी चीज का यथाशक्ति 
कभीकबार तो शक्ति के अलावा - खर्च करता रहे| संघ हेतु अपना अहं,स्वमान,बुद्धिको भी 
एक तरफ रखकर संघ की ओर पूज्य गुरुभगवंतो की सेवा-वैयाव्च्च करे| 
सही और योग्य ट्रस्टी इन्हें कहा जाए|

२,संघ सहायक
इस प्रकार समय न दे पाये किंतु सहाय करे; संघ के किसीभी कार्य में खड़े रहे,
प्रसंग में आये-जाए| कार्यकर्ता और साथी ट्रस्टियो के पास साहस से अपनी
गैर-मोजुदगी की गलती का स्वीकार करे और कामकाज का पूछे!

अब आता हे नंबर
३,साहब 
इनके अप लक्षण दिखाऊ आपको,
संयमी महात्माओ के प्रति बहुमान-सदभाव का सदंतर अभाव,
प्रवचन के दौरान अनिवार्य रुप से गैर-हाजर,
आराधको के साथ अशिष्ट व्यवहार,
पैसो के दम पर मनचाहा कराने की मंछा,
जोर और ताकत बताने की विकृत मानसीकता,
चढ़ावे और उछामणी के समय उनका पावर सपाटी पर देखने को मिले. - 
मैंने ऐसे भी ट्रस्टी देखे हे जिनके लिए कलम को लिखने में भी शर्म महसूस हो|

लंपट ट्रस्टियो की बाते तो सुनी थी किंतु अब तो दारु पिने वाले एवं जुआरी ट्रस्टी भी देखने मिलते हे !
रात को नो बजे के बाद मीटिंग हो तो 'साहब' आ नहीं पायेंगे... क्यों की उसके बाद उनके पैरो का गरबा 
प्रोग्राम होता हे| आघात और पीडा अकथ्य हे, उनकी बोतल-शोतल पूजन की सभी को जान होती हे 
किंतु उस रहमदार-नेक नामदार की सखावत के आगे 'बगावत' नहीं हो शकती| कितनी करुणता!

एक दीक्षा प्रसंग में प्रभुजी की नाण के समक्ष ही दुनिया जिनकी तारीफ़ करते नहीं थकती ऐसे 
'साहब' कुर्सी पर पैर पे पैर चढ़ाकर मुंह में तंबाकू के मसाले चबाते हुए बैठे देखने को मिले तब 
हमारे समाज की पैसे और परस्ती पे धृणा हो उठी|

एक वृद्ध ट्रस्टीको चौमासी देववंदन में और प्रतिक्रमण आदि क्रिया में स्तवन गाते देख  
ह्रदय आनंद से भर गया था| मार्क कीजिये, हमारे कितने ट्रस्टीयो पौषध-प्रतिक्रमण-देववंदन 
प्रवचन जैसी आराधना में जुड़ते हे? सादगी से सज्ज, खादी के वस्त्र,धोती और सिर पर टोपी|
ऐसे प्रशासक की पूज्योभी शर्म भरे| महाजन की परंपरा याद आये|
इन्हें कहलाये संघ सेवक|

आवश्यक क्रियाओ के साथ जिन्हें आपसी नाता हो ऐसे ट्रस्टी के साथ छोटे छोटे महात्मा भी 
बैठ के चर्चा करे, और ऐसे आराधक ट्रस्टी महात्माओ के साथ भी गौरवपूर्ण व्यवहार करे की 
ट्रस्टीपद की गरिमा और शोभा प्रज्वलित हो उठे| बाकी वो तिन नंबर वाले तो पूज्यो के साथ-
साध्वीजी के साथ ऐसा आचरण करते होते हे की उन्होंने 'संघ' खरीद लिया हो!
गुरूभगवंतो के साथ असद्व्यवहार व्यक्ति और व्यक्तिसमूह की दुर्दशा का कारण बनती हे|
सावधान  रहना : संस्कृत साहित्य का एक श्लोक हे |

जहां अपूजनीय की पूजा हो और पूजनीय का अपमान हो 
वहां दुष्काल-मृत्यु और भय के  साम्राज्य की स्थापना होती हे!!

हमारे आसपास, हमारे संघमें सज्जन और साधूपुरुष की उपेक्षा होती हो और 
दुर्जनों को घी-केले दिए जाते हो तो समयोचित रूप से जाग जाये!


कोलम : साची वात
ह्रदय परिवर्तन
अप्रैल - २०१७ 
गुजराती से हिंदी अनुवादित 


No comments:

Post a Comment