Sunday 31 July 2016

Jain Sadhu Ki Kimmat Kitni?

साधू की किंमत कितनी ?


संसार के सुखो को त्याग कर सतत कष्ट पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले साधू की किंमत क्या होती हे?
इसे पढ़ कर आपका नजरिया चोक्कस बदल जाएगा!


मरुभूमि में विहार करते हुए शासन के श्रमणी भगवंत
कोलम : साची वात (हिंदी अनुवादित)
लेखन : श्रमणप्रज्ञ


जैन साधुकी किंमत कितनी?
साधुकी किंमत कितनी
दो-चार घटना के संदर्भ में यह लिखा गया हैबहोत ह्रदयपूर्वक यह लिखा जाएगा 
हाँ, तो साधु सतत घिसाता रहता है दुसरो के लिए व्यथित होता रहा है|
साधु योग्य तो होता ही है पर अब साधु भोग्य भी होता है 
"भोग्य" का मतलब साधु, समाज और संघ के लिए सतत कुछ कुछ प्रदान करता रहा है,
घिसाता रहता है, व्यथित रहेता हे
उसके दीक्षा के वरघोडे से लेकर, स्वागत यात्राका वरघोड़ा, प्रवेश का वरघोड़ा, प्रसंग का वरघोड़ा,
रथयात्राये और आखिर में उसकी विदाय के समय निकलने वाली उसकी अंतिम यात्रा.....          
इन सभी में एक मात्र "सर्वजन हिताय...सर्वजन सुखाय" की भावना ही बहती रहती है
उसकी दीक्षा सर्वजन हिताय
उसका पढ़ना सकल संघ शुभाय
उसका प्रवचन सज्जन बोधाय
उसका विहार बहुजन सुखाय
उसकी गोचरी अन्यजन पुण्याय
उसका संयम सर्वजीव रक्षाय,  अरे
उसका मृत्युभी जगत के लाभाय!
कैसा अदभुत जिवन 
सबकुछ दुसरो के लिएअपने सुखका विचार मात्र नहीँ!
दुसरो का विचार वह साधु का श्वास 
साधुता के कष्ट स्विकार करने के बाद भी साधु क्या पाता है
कोनसे राजाशाही सुखोंको वे पाता है?
कोनसे बंगले बना कर सुख मग्न बनता है
अपने दुःख या पीड़ा की सहानुभूति कहाँ पाता है?
बताइये जरा, यह सब काम साधु क्यों करता है?
ऐक मात्र सर्वज्ञ प्रभुकी आज्ञाको वफ़ादार रहने हेतुअपने भगवानको खुश रखने हेतु

परमात्मा की बतायी बात सच्ची हे यह पुरवार करने हेतु वो कितनी महेनत करता है
हां, वो ही उसका सुख,वो ही उसका परोपकार
वो ही उसका आनंद और वो ही उसका स्वार्थ!
वह मृत्यु की अंतिम क्षण तक हँसता हे 
वो मन को मार कर, सुखानुभूति को लात मारकर
कष्टो को सामने चलकर सहन करता है कारण?
कारण प्रभु ने कहाँ हे : 
"तू सर्व जिव को सुखी कर!",वही तेरा जिवनतेरा कर्तव्य...
और वो ही तेरी कर्म निर्जरा...!
-और बस इसलिये ही साधु सतत प्रयत्नशील रहता है!
अरे, यह भावना में यदि उसकी "गलती" हो जाए तो वो साधु प्रभु-गुरु समक्ष माफ़ी याचता हे
प्रायश्चित करता हैआलोचना लेता हेकैसा निष्पाप जिवन!
यदि वो कोई जीवहिंसा में निमित बन जाये तो वो रो उठे
उससे यदि गलती से भी जूठ बोल दिया जाये तो उसे अपने अंग अंग में बिच्छु के दंश लगने लगते है
यदि वो मालिक को पूछे बिना किसी चीज को हाथभी लगादे तो तुरंत उसका हाथ कान पकड़ता हे।            
उसकी नजर में या मन में विकार का लेशमात्र चमकारभी हो तो उसकी आँख भर आये 
कोई चीज पर यदि ममत्वभी बढ़े तो "मिच्छामि दुक्कडं" का शब्द अपने होठों पर रखे
अरेउससे यदि अल्प मात्रा में भी ज्यादा भोजन हो जाये तो रात्रि भोजन करने की भिति से वो क्षमायाचना करे....
-ऐसा पापभिरु जीव सकल जिवराशी या सकल संघको सुखी करनेकी प्रवृति करता रहे....
पर सवाल यह है कि...उस साधु का इतना कुछ करने के बाद भी हमने क्या किया?
हमने उन्हें पैसो से तोलाउनके चातुर्मास प्रवेश में कितनी प्रभावना? उनकी निश्रा में कितने उपद्यान या संघ?
उनकी कामळी - गुरुपूजन का चढ़ावा कितने में गया?
-अरे यह लिखते हुए कलम ध्रुज रही है कि 
उनके कालधर्म बाद उनके अग्निसंस्कार की उपज कितनी हुई?
उसकी चर्चा के शोरमें हम उनके गुणवैभव को भूल रहे हे 

-वे कितने आराधक थे उससे ज्यादा उनकी निश्रामें प्रभावक प्रसंग कितने हुए
यह देखने की हमारी आँखो को आदत लग गयी है
चलिये, निश्चय करते हेसाधु या साध्वीजी भगवंतकी अतरंग आराधना को देखेंगे
उनकी आराधना की आराधना करे अनुमोदना करेउनको खुश रखे
वे खुश तो हमारे प्रभुजी खुश और आखिर में हम भी खुश

ह्रदय परिवर्तन    (Hriday Parivartan)                     
अंक १२१ जुलाई २०१६ (Issue 121 July 2016)
कोलम साची वात  (Column : Sachi Vaat)
लेखन : श्रमणप्रज्ञ   (Writer : Shrmanpragya)


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