Saturday 15 October 2016

CHATURMAS (CHOMASE) KI BINATI KAISI HO?


"देव न भूले विवेक"


कुछ समय पूर्व एक पंच कल्याणक की पूजा में जाना हुआ। प्रभु के दीक्षाकल्याणक की शोभायात्रा के 
विवरणमें मजे की पंक्ति सुनाई दी :*देव न भूले विवेक* - अश्वसेन महाराजा को आगे कर के 
देव गण चले तब पं. वीरविजयजी महाराजने देवो को विवेक की खान गिनाया.... 
फिर जो प्रेरक चिंतन चला वो बात यहां रखता हूँ।

देव गण समजे की आगे किसको रहना चाहिए। पर मनुष्य - देव से अधिक बेहतर - गिने गये मनुष्यो को
हर बार हर साल शोभा यात्रा में बैंड वालो के बड़े बड़े स्पीकरो में सुचना देनी पड़ती है 
कि कृपया कर गुरु महाराज के पीछे चले...पर ज्यादातर बार यह महरबानी चिरंजीव नहीँ बनती!
अलबत, यह भी एक सदभाग्य हे की सुचना देनी पड़ी इतने लोग भी शोभायात्रा में होते है...
अन्यथा ज्यादातर हमारी शोभायात्राओ एवं सामैयाओ में हम से अधिक संख्या  बैंड वालो की होती है।

विवेक दोष के बाबत में दूसरी कुछ  बात भी यहां उल्लेखनीय हे:
एक ज़माना था। गुरु भगवंत के चौमासे हेतु संघ जूरता-जंखता-पीड़ता। लंबे....लं...बे विज्ञप्ति पत्र लिखता...
उसमे गिड़गिड़ाहट और आरजू का स्पर्श मिलता। संघ की ओर से प्रतिनिधि मंडल वहां जा कर गुरु भगवंत को 
अपने यहां चौमासा करने की बिनती करता। बहोत अद्भुत वह द्र्श्य होंगे। कुछ प्रभाववंत श्रावक भी थे... 
जो गुरु के पास जा कर खड़े रहे तो उनका वज़न ऐसा पड़ता की गुरुभगवंत के पास 'हा' का विकल्प ही रहता! - 
था, यह सब था...आज इसमेंसे कुछ भी नही। 

विवेकहीन और अनुभूतिहीन चातुर्मास बिनतीओने वर्तमान में संघ और गुरु के बीच के 
संबंधों में विशेष शुष्कता ला दी है। हा, चौमासे तो आज भी भव्य होते है पर वो भव्यता भीगी नहीं होती। 
नैसर्गिक नहीं होती।  मेक अप से सजाये हुये चेहरे में जैसे रूप नहीं होता वैसी! 

बिनती फॉर्मेलिटी बन जाती है और कहीं सौदाबाजी भी। 
कुछ संवाद सुनिये : 'साहेब, चौमासा करने की इच्छा हो तो हम बिनती करने के लिये आये'
'साहेब, जो भी हो जल्दी जवाब दीजिये। हमे दूसरी जगह तपास करने का अंदाज लगे।'
'आपकी छोटी भी गिनती हो तो राह देखे अन्यथा....'
- यह तो कुछ 'सेम्पल पीस' हे बताइये इसमें भाव की भिनास आग्रह का अधिकार या अनुभूति की भावना दिखी? 
कुछ अविवेक की मूर्तियां तो बिनती के नाम पर ऐसी पीड़ा दे जाते हे की जिंदगीभर याद रह जाय।
एक भाई तो गुरुभगवंत के पास जाकर बिनती करने के बाद हल्के से कहता है : 
'जो होगा वो हम व्यवहार समज लेंगे!' पूर्ण सच्ची घटना। 

अपात्र व्यक्ति जब संघ सिर बन बैठे तब ऐसी परिस्थिति बनति हे!

अंगत रूप से कहुं तो जहां बिनती के नाम पर सिर्फ फॉर्मेलिटी होती हो 
वहां सच्चे एवं खुमारीवंत साधुओंको चौमासा ही नहीं देना चाहिए। 
अलबत जिसे सामने चढ़कर या पड़कर चौमासे देने हे या लेने हे ऐसे साम्राज्यवादीयो को 
यह बात जल्दी दिमाग में नहीं उतरेगी। बाकी हम तो मानते है कि : 
आव नहीं,आदर नहीं, नहीं नैनन में नेह, उस घर कभी म जाइये, भले कंचन बरसे मेह!

जहां स्वयं की शक्ति से जीया जा शके वहां जाएं। लाचार बनना प्रभु के साधु के लिए योग्य नही। 
एक शिस्तप्रिय साधु ने मुझसे कहा था : दोस्त मुझे पैतालीश होने आये...और बिस पच्चीस साल और जिना हे 
तो पूरे भारत में मेरे लायक बिस पच्चीस क्षेत्र  नहीं मिलेंगे? मिलेंगे ही ना!

यह लेख अविवेक की बाते विवेकपूर्व कहने हेतु लिखा गया है पर मन में आयी बाते रोक नहीं शकता। 
मुझे लगता है कि चौमासे पैसे या पब्लिक देख कर नही पर प्रेम देखकर होते तो 
छोटे छोटे गाँव न्याल बन जाय। वहां जो मिलेगा वो हजारो घरो वाले शहरो में शायद नहीं ही मिलेगा!

अंत में गृहस्थों के लिए इतना ही कहूंगा कि यदि बिनती करनी हो तो कभी फोन से नही करनी चाहिए।

भले ही सिर्फ एक संघ सदस्य भी जाकर विवेक पूर्वक गुरुदेव की इच्छा जान कर आये। 
पर औचिन्त्य भंग तो बिलकुल न चले।
"देव न भूले विवेक"
तो आप भूल जाओगे...?

कॉलम : साची वात
गुजराती से हिंदी अनुवादित
लेखन : श्रमण प्रज्ञ
ह्रदय परिवर्तन
अंक 122


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