"प्रतिष्ठा के भीतर में"
जिनेश्वर प्रभुजीकी प्रतिष्ठा याने आनंद का त्यौहार। सभी को आनंदकी राखी बांधने का अवसर।
खुशियों की मिठाई बांटने का प्रसंग। में तो कहुंगा : प्रभु के कल्याणक और प्रभुकी प्रतिष्ठा में
ज्यादा फर्क नहीँ गिनना चाहिए।
सर्वजिवराशिको प्रसन्नता और सुखानुभूति देना यही प्रभु का लाक्षण्य। और इसीलिये
कल्याणक की तरहा प्रभुकी प्रतिष्ठा के प्रसंगमें गाँवमें-नगरमें मिठाई बंटे,आनंद-मंगल हो,
लापशी के आंधन रखे जाय, और धुँआबंध गाँव जीमण हो...
इन सभी के पीछे मुख्य ध्येय तो सिर्फ एक : प्रभु जब गादीनसीन हो तब वो ख़ुशी पूरी दुनिया में फैले।
प्रभु के कल्याणक की तरहा ही!
हमारे वृद्ध पुरुषो यह बाबत में खूब गंभीर थे। गाँवमें नाराज व्यक्तिओ को मनाने हेतु भी वे तैयार रहते। पर आज कल अपने बाप-दादा से अधिक "हुंशियार" साहबो के पास प्रभु शासन की ऐसी गौरववंत परंपरा नही होती।
बात करनी है ऐसी प्रतिष्ठाकी की जिसका सालो से इंतजार किया जा रहा था।
सर्व गच्छमान्य - तिनो लोकमे महाप्रभाववंत, अचिंत्य चिंतामणी दादा की प्रतिष्ठाकी।
मंगल क्षण अत्यंत नजदीक आ रही है तब उसमें सक्रिय कुछ तत्वोंसे भद्रिक जिव चिंतित हे।
ऐसे दंशीेले,द्वेषिले,छाती पर बिल्ला लगा कर घूमते "ऑथोराइस्ड" लोग "शासन भक्त" नही कहलाने चाहिए। शासन भक्त शासन का हो, व्यक्तिगत भक्त कभी शासन भक्त न कहला शके।
प्रसंग के आमंत्रणमें कुछ पूज्यो को न कहना,अक्षम्य विलंब कर आमंत्रण देना,
न आये ऐसी व्यवस्था कर के विनंती करना....और कुछ पूज्यो के लिये आमंत्रण पत्रिका पोस्ट से भेजने का ठराव करना.....कोई वृषभ कुमार की बुद्धि दौड़ी हो ऐसा लगे, शाब्बास!
वास्तविक रूप में, सत्ता की रेशमी जाजम, संघकी जाजम जितनी पवित्र नही होती।
सबंधित लोगोको अंतरात्मा से पूछने जैसा प्रश्न है :
यह सब करने में मार्गरक्षक-दर्शक पूज्योको विश्वास में लिया गया है?
क्या वाकई ह्रदय में औचित्यसभर निखालसता हे ?
हम मानते है यह सभी बाबतों में मूल *विवेक* नाम के गुण को भुला दिया गया है।
बाकी इतने बड़े उत्सवमें इतने बड़े समाजमें से कोई भक्ष्याभक्ष्य बाबत में विवेकी-समझु और समर्थ श्रावक नहीं मिले? की गृहस्थों को साधुओ की कमिटी बनानी पड़ी? *रसोड़ा कमिटी साधू सम्हालें?
मंडप व्यवस्था साधुओ को सम्हालने की ?* ओह माय गॉड!
ऊपर से यह सब कुछ लिखित में ठराव के रूप में पास हो....!
खैर, प्रसंग तो भव्य ही होगा, होना ही चाहिये,होगा भी और होगा तब उसका यश यह महानुभावो को नहीं अपितु हमारे परमप्रिय प्रभुको ही मिलेगा - मिलना चाहिए। दादा के नाम पर अपनी रसोई पकाने वाले रसोइयों को उसका यश न दिया जा शके।
प्रभु हाजराहजूर हे, जगजयवंत हे।
हृदय के अहोभाव से प्रभु गादीनशीन हो उस पलका इंतज़ार करे।
पूरी दुनिया के रक्षण की जिसकी जिम्मेदारी हे वह हम सभीकी रक्षा करे!
पूर्वकाल में हुआ है वैसा न हो, भविष्य अत्यंत उज्ज्वल बने...
प्रभुके कल्याणक की तरहा प्रभुकी प्रतिष्ठा का जगतमें जय जयकार हो!!
कॉलम : साचीवात
श्रमणप्रज्ञ
ह्रदय परिवर्तन
अंक 122
(गुजराती से हिंदी अनुवादित)
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